शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

सांस सांस पिघल रहा हूँ मैं.


     कदमों पर राहों की ऐनक लगाई है जबसे
     दिन रात की तरह चल रहा हूँ मैं     
    ऐसा लगता है जैसे एक बर्फ का पिंड हूँ
   और सांस सांस पिघल रहा हूँ मैं.

    वक्त किसी आवारा पशु की तरह
    भरे बाज़ार जुगाली कर रहा है
    घंटे मिनट का झाग उसके मुहं से
    लगातार ज़मीन पर गिर रहा है

    दीवार पर मूक सलीब सा कलैंडर
   महाजन की तरह गिनती गिन रहा है
   वक्त गुजरता देखकर बैचेनी से मचल रहा है
   महीनें पन्नों में बदल कर दिवार से उतर रहे हैं

   कदमों पर राहों की ऐनक लगाई है जबसे
    दिन रात की तरह चल रहा हूँ मैं

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